मेरा बचपन पंजाबियों, मुस्लिमों और अन्य धर्मों (Mix religion) वाले लोगों के बीच बीता है | हाँ आस पड़ोस में बेशक अलग अलग धर्मों के पड़ोसी थे, लेकिन सभी आंटियों कि प्रवृति (Nature) बिल्कुल एक जैसी |
अब होता क्या था कि गर्मियों के दिनों में सभी आंटियां शाम के समय ऊपर छत पर बैठती थी और वो ही इधर उधर की बातें, चुगलियाँ, एक दुसरे की बातें करके ज़ोर- ज़ोर से ठहाके लगाने और bla! bla! bla!
अब यही टाइम हम बच्चों का भी छत पर क्रिकेट खेलने का होता था क्योंकि ग्राउंड में बड़े लड़कों की टीम होती थी तो वहां भी हमारे लिए कोई जगह नहीं होती थी | तो उन दिनों हमारे लिए हमारा प्ले ग्राउंड हमारी छत ही थी | हमारे ग्रुप में हम 6 मेम्बर थे जिनमें हम दो लड़कियां और 4 लड़के | बाहर दूसरे बेह्ड़े (like other block) वाले किसी भी बच्चे को हम अपने ग्रुप में शामिल नहीं करते थे | टीम स्पिरिट ऐसी कि अगर कोई एक कुछ करेगा तो सब एक साथ करेंगे |
हाँ तो एक बार क्या हुआ हम छत पर क्रिकेट खेल रहे थे और साइड में 2-4 आंटियां बैठी बातें कर रही थी और उन्हें हमारे क्रिकेट खेलने पर भी दिक्कत थी क्योंकि हमारे शोर शराबे में उनकी बातों का मज़ा किरकिरा हो रहा था और साथ ही साथ उन्हें ये डर भी था कि कहीं बॉल उनकों न लग जाये | तो कभी कोई आंटी तो कभी कोई बार बार बडबडा रही थी कि "न्याणों तुसीं मनदें नी, ऐथे ना खेडिया करो" |
लेकिन हम में से फिर कोई बोल देता आंटी लास्ट ऑवर है ये या मम्मी लास्ट ऑवर है | ऐसे करते करते हुआ ये कि मैं रन लेने के चक्कर में मैंने अपनी चप्पल उतार दी और एक पतली सी टाइल वाली स्टेपू (खेलने वाली पिचो) मेरे बाएं पैर में ज़ोर से चुभ गयी और फिर पैर से खून ही खून बहने लगा | जिसका निशान आज भी मेरे बाएं तले पर है |
तब रतन ने मेरी मम्मी को ज़ोर से आवाज़ लगाईं कि आंटी वो गिर गयी है उसको पैर में चोट लगी है | मेरा छोटा भाई भी वहीं था, वो भी साथ में ही खेल रहा था | लेकिन वो डर गया था और बोल रहा था "मम्मी डांटेगें निशु और पापा भी डांटेंगे" और बाकि सब छत पर ही पड़े एक पुराने कपड़े के साथ खून को रोकने की कोशिश कर रहे थे |
आंटियां भी मेरे आस पास ही खड़ी थीं और रतन कि मम्मी जो पंजाबी हैं बोले "होर खेड लो, खा ली चोट हुन पैर विच, मनदें तां है नी |
और अंत में उन्होंने पता है क्या कहा ?
"लै लै स्वाद"
मैंने यह पॉइंट नोट कर लिया और बचपन में इन शब्दों को मैं बहुत इस्तेमाल भी करती थी | यू नो जैसे हमें बड़ों वाली फीलिंग आती हो कुछ बातों को बोलकर | बिल्कुल वैसे ही |
लेकिन आज रात को फिर मुझे वो बचपन वाला सारा किस्सा ताज़ा हो गया जब एक न्यूज़ पढ़ते पढ़ते ये महसूस हुआ कि जब कभी भी कोई व्यक्ति अपनी ऑथोरिटी एक्ससीड करता और जब हम कुछ कर नही पाते तब हम समय का इंतज़ार करते हैं। अक्सर कुदरत कुछ न कुछ जस्टिस कर ही देती है तब हमेशा मन में से यह बोल उभर ही आते हैं "लै लै स्वाद"
कभी कभी कोई किस्सा हमें बहुत बड़ी सीख दे जाता है क्योंकि बस देखने के नज़रिए का ही तो फर्क है |
ये तीन शब्द बहुत बड़े स्ट्रेस बस्टर हैं और हमेशा काम करते आये हैं क्योंकि जहां सामने वाला अनुशासन तोड़ कर अपनी ऑथोरिटी को एक्ससीड करके धक्का या जुल्म करने का प्रयास करता है और हम कुछ कर नही पाते।
तो मैंने अपने अनुभव से सीखा है कि जिस सवाल में फार्मूला गलत लगा होगा उसका उत्तर भी गलत ही निकलेगा और सब्जेक्ट अपने कर्मों के फेर में अपने आप फंस ही जाएगा |
अपने पास पहले से ही अल्गोरिदम तैयार है "लै लै स्वाद"
इट वर्क्स रियली !
THANK YOU SO MUCH!!!
Read it, experiment it, accept it, own it and please do SHARE it with one and all!!!
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